गुरुवार, 28 मार्च 2024

सत्योत्तर* काल में लिखी रचनाओं को सावधानी से पढ़ना जरूरी, संदर्भ: डॉ. सुरेश पंत की 'शब्दों के साथ-साथ'

(सत्योत्तर=Post-truth Era)
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किताब    : 'शब्दों के साथ-साथ',,
लेखक    : डॉ. सुरेश पंत
प्रकाशक   : हिंद पॉकेट बुक्स / पैंगुइन रैंडम हाउस
संस्करण   : संभवत: प्रथम 2023 [जानकारी किताब में स्पष्ट नहीं है] ( प्रति जो समीक्षाधीन है) 
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    किताब की चर्चा से पहले लेखक के बारे में यह जानना जरूरी है कि डॉ. सुरेश पंत संस्कृत, हिन्दी, तमिल, और रूसी भाषा के जानकार व्यक्ति है, ट्वीटर (वर्तमान एक्स) पर अपने भाषायी ज्ञान के चलते बेहद लोकप्रिय शख्स हैं। शिक्षक हैं भाषायी मार्गदर्शक हैं बहुतों के, मेरे भी (एकलव्य टाइप)।

    यहाँ मैं सत्योत्तर काल की अवधारणा का लेख में जिक्र कर रहा हूँ क्योंकि वर्तमान समय का सत्य यही है। [और यह वाक्य एक लूप (LOOP) है] सत्योत्तर काल के बारे में विस्तार से जानने के लिए थोड़ा अनुसंधान कर ले { हालांकि यह सत्योत्तर काल का लक्षण बिलकुल भी नहीं है} या मेरे लेख का इंतजार करें। मेरे सीमित ज्ञान से अलबत्ता आपकी भावनाओं को ठेस लग सकती है जो सत्योत्तर काल का एक प्रमुख लक्षण है। तो आप अपने ज्ञान की बारिश मुझ पर करने लिए मेरे ट्वीटर टाइमलाइन पर आ जाइए ये सत्योत्तर काल दूसरा प्रमुख लक्षण है { नेकी कहीं भी करो डालना सोशल मिडिया पर ही है}। इस पर एक स्वतंत्र लेख लिखना समीचीन होगा।
    इस लेख में डॉ. सुरेश पंत की हालिया प्रकाशित किताब 'शब्दों के साथ-साथ' की संक्षिप्त आलोचना और शुद्ध रूप से मेरे विचार होंगे इसका उनकी विद्वता से और उनकी विशेषज्ञता से कोई लेना देना नहीं है।
 
   जब से इस किताब के बारे में ट्वीटर पर चर्चा शुरू हुई थी तभी से मैं इसे पढ़ना चाहता था। फिर इसे मंगवाया भी। किताब की प्रस्तावना "कुछ कहना है...” में पहले पैरा के दूसरी ही पंक्ति में डॉ. साहब ने लिख दिया कि संविधान ने हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मान दिया। बस यहीं पूरा मूड खराब हो गया। इतने विद्वान व्यक्ति से इस लापरवाही की उम्मीद बिलकुल नहीं थी।
भारत का संविधान

"अनुच्छेद 343- संघ की राजभाषा- (1) संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। ...”

    मैं यहाँ पर अपना विचार रखना चाहता हूँ कि हिन्दी जो कि निरंतर विकासशील व समावेशी भाषा है उससे प्रेम करने वाले और उसे व्यवहार में लाने वाले लोग अचानक से इतने पूर्वाग्रह से ग्रसित क्यों हो जाते हैं जब भी राष्ट्र और भाषा की बात आती है। एक ओर तो ये कहेंगे कि भारत को यूरोप या विदेशी पैमाने या चश्में से न देखा जाए और दूसरी ओर हिन्दी को राष्ट्र भाषा के तौर पर स्थापित करने के लिए यूरोप या पूर्वोत्तर के देशों का उदाहरण देंगे जहाँ का क्षेत्रफल और जनसंख्या भारत के छोटे-छोटे प्रदेशों के सामने भी कहीं नहीं टिकती। राष्ट्रवाद की यूरोपीय अवधारणा के आधार पर पर आप भारत की व्याख्या नहीं कर सकते हैं। हिमालय से नीचे हिंद महासागर तक के भू-भाग को भारतीय उपमहाद्वीप कहा जाता है क्योंकि जैसे एक महाद्वीप में अनेक देश होते हैं उसी तरह यहाँ भी अनेक देश हैं और भारत इतनी ज्यादा विविधताओं को समेटे हुए है कि छोटे-मोटे देश जो इस उपमहाद्वीप में है उन सभी की संस्कृतियों की सामासिक अभिव्यक्ति "भारतीय उपमहाद्वीप" के अंतर्गत हो जाती है। यह अपने आप में विशद अध्ययन व विवेचन का विषय है।
    पुन: किताब पर आते हुए मैं कहना चाहूंगा कि लेखक को सबसे पहले ही बिंदु में राजभाषा और राष्ट्रभाषा के अंतर पर चर्चा कर लेनी थी किताब के भावानुरूप। इससे सत्योत्तर काल के युवाओं को थोड़ा प्रकाश मिलता इस विषय पर। परंतु शायद लेखक भी सत्योत्तर काल के चाल से स्वयं को निरपेक्ष नहीं रख पाए और तथ्यों पर भावनाओं का आरोहण कर दिया। शायद तथ्यात्मक सच से किताब की बिक्री पर असर पड़ता इसलिए इसका लोप कर दिया गया हो। ये समझौता मुझे अच्छा नहीं लगा। जिन शब्दों का विवेचन किया गया है उनके चयन का आधार क्या है ये समझ में नहीं आता। क्योंकि बहुत से शब्द इसमें हैं ही नहीं जिनके बारे में एक विद्यार्थी के रूप में बहुत परेशानी आती है। एक ऐसा ही शब्द है सामाजिक और सामासिक जिसमें बड़े बड़े प्रकाशन समूह ने अनुवाद में गलती की हुई है। लेखक ने स्वयं स्वीकार किया है कि किताब आधी अधूरी है उसके लिए उनको साधुवाद। परंतु जितना सीमित रूप में किताब की सामग्री है उस लिहाज से किताब महँगी है (200 से कम होनी थी MRP)। किताब के दाम को लेकर मेरा मानना है उसकी कीमत इतनी होनी चाहिए कि फोटोकापी महँगी लगे। ज्ञान तो सदैव से ही महँगा है। अज्ञानता सस्ती है। पर उसका जोखिम ज्यादा है। कीमत को लेकर कुछ और कुतर्क, वर्तमान समय में अज्ञानता का सबसे बड़ा प्रतीक है गुटखा चबाकर थूकना। उसके साप्ताहिक बजट से किताब की कीमत कम है। मल्टीप्लेक्स के मूवी के एक टिकट से कम है इसकी कीमत। इन कुतर्कों से किताब की कीमत पूरी तरह जायज है। कीमत पर इतनी चर्चा की शायद आवश्यकता न हो लेकिन जब भी कोई ऐसी किताब दिखती है जो स्कूल और कालेज के विद्यार्थी को फायदा पहुंचा सकती है तो मैं थोड़ा नास्टेलजीक (Nostalgic) हो जाता हूँ क्योंकि उस दौर में अमेजन और इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध नहीं थी तो किताब खरीदने के लिए दिल्ली, लखनऊ, इलाहाबाद जैसे जगहों पर निर्भर था यहाँ तक कि बैंगलोर के एम जी रोड पर स्थित किताब दुकान से भी एक किताब खरीदी थी। इस विषय पर भी कभी विस्तार से लिखूंगा फिर यहाँ लिंक डाल दूंगा।
    लेखक से यह उम्मीद की जा सकती है कि अगले संस्करण में उपरोक्त से संविधान शब्द का लोप कर दें और उसकी जगह जनमानस रख दें। भावनाएं भी अक्षुण्ण रह जाएंगी और तथ्य भी।
    किताब की सामग्री बेहतरीन है जिस तरह इसे हाथों हाथ लिया गया इसका छपना सफल हो गया। बाकि इसका असल उद्देश्य तब सफल होगा जब लोग इसे पढ़कर अपने भाषिक ज्ञान को बेहतर करेंगे। यह कोई शब्दकोश नहीं है परंतु जो लोग ज्ञान प्रति गंभीर होंगे हो सकता है इसको पढ़ने के बाद वे शब्दकोश के नियमित प्रयोग की ओर उन्मुख हो सकते हैं। किताब के बैक कवर पर किताब को लेकर कुछ दावे किए गए हैं यकीनन वह बाजार की भावनानुरूप अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। अपने बेरोजगारी (के हर प्रकार के स्वरूप) के दिनों में जब मैं संघर्षरत था तब लंबे समय तक प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की है, अपने व्यक्तिगत अनुभव और ज्ञान के आधार पर मैं यह बात दावे के साथ कह सकता हूँ कि यह किताब मूलभूत किताबों का स्थान नहीं ले सकती। अधिक से अधिक यह एक सहायक किताब साबित हो सकती है जिसे अभ्यर्थी अपने सुविधानुसार पढ़े। खासतौर पर जब वह गंभीर तैयारी करते हुए थक जाए और ब्रेक लेकर कुछ ऐसा पढ़ना चाहे जो तैयारी की गंभीरता को कायम रखते हुए कुछ हल्का फुल्का सा दिमाग को आराम दे और उसे पढ़ाई के अगले अभियान के लिए तरोताजा कर दे, तब इस किताब को पढ़े, फायदा हो सकता है। भाषा के प्रति अनुराग बढ़ाने के लिए और गंभीर भाषायी विवेचन के लिए ये किताब काम आ सकती है। इस लेख को प्रकाशित करते करते पता चला है कि इसका पार्ट-2 भी इस साल आ गया है। मुझे क्षमा कर दें डॉ. साहब पहली किताब पढ़ने और ये लिखने में मैंने इतना समय ले लिया। चलो भाई अगली कड़ी मंगाने की तैयारी करते हैं।

सोमवार, 15 नवंबर 2021

कर्नल विप्लव त्रिपाठी : टाइगर अब बस यादों में रहोगे (Colonel Viplav Tripathi: In Memory forever)

कर्नल विप्लव त्रिपाठी : टाइगर अब बस यादों में रहोगे



प्रिय मित्र, विप्लव,

यह लेख तुम्हारे जाने के बाद लिख रहा हूँ। मैं यह सब तुम्हें बार बार बताना चाहता था लेकिन जब तक तुम साथ थे कभी ऐसा अवसर आया ही नहीं जहाँ मैं तुमसे यह सब कह सकूं। कभी सोचा नहीं था तुम्हारे जाने के बाद यह सब लिखना पड़ेगा। बहुत कुछ हुआ पिछले कुछ सालों में सब पर बात करनी थी। लेकिन अब बस खुद से ही बातें करनी है। क्योंकि मेरे अंदर से तुम कहीं नहीं जा सकते। जीवन के इस खोखलेपन में तुम्हारी ही प्रतिध्वनि गूंजेगी। सदा के लिये।

तुम्हारा

टाइगर
(वह मुझे इसी संबोधन से बुलाता था जब हम मिलते थे, पता नहीं क्यों) (some army style, may be)

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        विप्लव त्रिपाठी, उम्र 40 साल, कर्नल, असम राइफल्स, भारतीय सेना, ये नाम उस शख्स का है जो अब शहीद हो चुका है। विप्लव से मैं पहली बार मिला था एनडीए (राष्ट्रीय रक्षा अकादमी) की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के दौरान 1997-98 में, देवांगन सर के घर पर। मैं देवांगन सर से गणित पढ़ता था। उस समय वह रींवा सैनिक स्कूल में था। शायद 11वीं में था, छुट्टियों में घर आया था। उस परिचय के बाद पता चला हमारे परिवार पुराने परिचित हैं। उसके बाद उससे कई बार मिला बातें की हर बार मुझे ऐसा लगता जैसे हम कई जन्मों के दोस्त है कभी भी ऐसा नहीं लगा कि नई दोस्ती है। मेरे दिमाग में क्या चल रहा है वह बिना बताए समझ जाता उसके मन में क्या है उस समय, मुझे अंदाजा लग जाता। भौतिक रूप से नजदीक न होते हुए भी वो हमेशा मेरे साथ ही था। उस समय सेल्फी कल्चर का उदय नहीं हुआ था। मोबाइल फोन पापुलर कल्चर में नहीं थे। 1-2 साल बाद उसका राष्ट्रीय रक्षा अकादमी, खड़गवासला, पुणे के लिये चयन हो गया। उसके बाद भी जब कभी वह घर आता उससे मुलाकात होती रही। (यहाँ ये बताना उतना जरूरी तो नहीं पर मैं एनडीए का एन्ट्रेंस एग्जाम क्लीयर नहीं कर पाया) । उसके बाद मैं अपने स्नातक की डिग्री के लिए संघर्ष कर रहा था तब तक वह लेफ्टीनेंट बन कर सेना में आ चुका था। हम जब मिलते तो एनडीए की ट्रेनिंग के किस्से कहानियाँ चलती रही। कुछ सालों बाद वो कैप्टन बना हम मिलते रहे। इस बीच मैंने यूपीएससी की सीडीएस के प्रवेश की लिखित परीक्षा पास की और एसएसबी के लिए क्वालीफाई किया परंतु मैं दोनों बार ( बैंगलोर और इलाहाबाद, SSB) 2004 में लगातार स्क्रीन आउट हो गया। उसके बाद भी हम मिलते रहे। इस दौरान मैं बच्चों के लिये साइंस क्लब चलाता था उसमें उसे बच्चों से मिलने के लिए बुलाया तब वह मेजर बन चुका था, मैं एक पत्रकार का काम कर रहा था। उस समय भी वह एकदम सरल और सौम्य था आसानी से बच्चों के साथ संवाद स्थापित कर लेना उसकी विशेषता थी। उस घटना का जिक्र मेरे साइंस ब्लाग में है। (https://cscagim.blogspot.com/2021/11/Major%20Viplav%20Tripathi%20with%20junior-scientists.html) । उस समय वह कोंगो यूएन शांति सेना अभियान से वापस लौटा था। बच्चों को आर्मी के बारे में बताते हुए, सेना में जाने के तरीके बताते हुए उसका जोश, जूनून हम सभी अपने अंदर महसूस करते थे। उसके कुछ सालों बाद उसने वेलिंगटन टेस्ट पास किया, ये क्या है मैं नहीं जानता लेकिन उनके आर्मी कैरीयर के लिहाज से ये बहुत महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जाती है, क्योंकि इसके बाद ही आगे प्रमोशन होता है। उसके बाद भी हम अक्सर मिलते रहे। इस बीच मेरा चयन उप निरीक्षक पुलिस सेवा के लिए हो गया। यहाँ तक अगर आप पढ़ चुके हैं तो ये सोच रहे होंगे कि मैं अपनी असफलताओं और संघर्ष (थोड़ा सा) को जबरदस्ती यहाँ बताया है लेकिन ये इसलिये कि हमउम्र होने और लगभग एक साथ एनडीए की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे एक समय (नितांत अलग-अलग पृष्ठभूमियों व परिस्थितियों में), परंतु सफलता के पैमाने पर हम दोनों दो विपरीत ध्रुवों पर थे, फिर भी इस पूरे समय के दौरान कभी भी उससे मिलते समय इस या किसी और पैमाने का अहसास न मुझे था न उसे। मैं थका हारा निराश उससे मिलता तब भी मैं उसका "टाइगर" था उससे मिलने के बाद एक नये जोश के साथ जिंदगी का सामना करने निकल पड़ता था। हमारे पुराणों में एक किरदार है बाली का जिसके सामने कोई भी आता था तो उसकी ताकत आधी हो जाती थी लेकिन विप्लव उसका उलट किरदार था। विप्लव के सामने जो भी आता था उसकी जिंदादिली दुगनी हो जाती थी। जिंदगी के हर पल को कैसे जीना है खुशनुमा तरीके से उसकी कोई भी टाइमलाइन देख लिजिए पता चल जाएगा। वह हर किसी का दोस्त था। मुझे जिंदगी के कुछ बुनियादी अनुशासन के तौर तरीके उसी ने सिखाए थे। मैदान पर मुझे कंमाडो टेक्नीक सिखाता था, ये मेरे पुलिस में आने के बहुत पहले की बात है। उसने मुझे फ्रंट रोल व बैक रोल सीखा दिया था। आर्मी का अनुशासन व ट्रेनिंग उसके रग-रग में था। अभी कई सोशल मिडिया साइट पर उसके बेटे अबीर का ट्रेनिंग सर्किट का विडियो वायरल हो रहा है। वो ऐसा ही था जो उसके साथ रहेगा वो उसे आर्मी कैडेट बना देता था बिना जोर जबरदस्ती। अबीर के चेहरे और उसकी रिपोर्टिंग देखिए समझ आ जाएगा कि विप्लव किसी को भी खेल-खेल में क्या से क्या बना देता था। वो जादूगर था इंसानी संबंधों का।
        भारतीय आर्मी की ट्रेनिंग की उद्दात परंपराओं का सच्चा प्रतिनिधि था विप्लव। उसके रग-रग में आर्मी बसती थी। वन्स ए आर्मीमेन आलवेज ए आर्मीमेन। रींवा सैनिक स्कूल से एनडीए वहाँ से कमीशन होने के बाद काश्मीर, सीयाचिन, यूएन के शांति सेना का कांगो अभियान, लखनऊ उसके बाद मिजोरम,फिर मणिपुर इस बीच उसकी पोस्टिंग कहीं और भी रही हो तो मुझे मालूम नहीं क्योंकि इस बीच मैं अपनी नई नौकरी में व्यस्त हो गया। अब हमारी छुट्टियाँ एक साथ मैच नहीं कर रही थी। फिर हम कुछ बार मिल पाए। एक बेटा, भाई, पति, पिता और एक दोस्त के रूप में उसके जिंदादिली को मैंने देखा है पर इन सबसे भी कुछ खास था वो ये कि वो एक बेहतरीन इंसान था। मैं उसे भारतीय सेना का एक सच्चा रत्न मानता हूँ जो अब खो गया है। भारतीय सेना के इस जांबाज अधिकारी का बलिदान क्या रंग लाएगा ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा। तब तक बस तुम्हारी यादों के सहारे।

-नीलाम्बर मिश्रा,

(ऊपर जो कुछ भी है वो मेरा नितांत निजी अनुभव है)

बुधवार, 28 अप्रैल 2021

HOMO DEUS की समीक्षा जैसा कुछ



प्रस्तावना- यह लेख बहुत पहले 2020 में कभी लिखा गया था। मेरे फेसबुक पर प्रथम बार प्रकाशित हुआ था। इस कार्य के समर्पित ब्लाग के शुरू करने पर पुन: प्रकाशित कर रहा हूँ।  वर्ष 2019 की शुरूआत में एक किताब खत्म की थी जिसे खत्म करने मे कुछ समय ज्यादा लग गया था। लेकिन उसकी चर्चा करना चाहता हूँ। युवाल नोवाह हरारी (Yuval Noah Harari) एक ऐसा लेखक जिसको पढ़ने के बाद ज्ञान की अवधारणाओं पर पड़ी सलवटें हट जाती है। (ynharari(.)com ) इस वेबसाइट पर जाकर उनके बारे में जाना जा सकता है।
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किताब का नाम :  'Homo deus' 
लेखक : युवाल नोवाह हरारी (Yuval Noah Harari) 
प्रकाशक : Vintage 
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...अथ...
                किताबें पढ़ना चाहिए ...उपदेश देना आसान है। पर मैं गाँधी (मोहन दास करमचंद गाँधी) पर विश्वास करता हूँ।
{स्पष्टीकरण: ऊपर पूरा नाम देना जरूरी तो नहीं था लेकिन मेरे कुछ मित्र (और बहुत से लोग RI+nRI) चुनावी बुखार से पिड़ीत हैं वे भड़क सकते हैं कि मैं किसी और गाँधी का जिक्र कर रहा हूँ।जिसका एक देश की किसी राजनीतिक पार्टी से संबंध/सर्वाधिकार/ प्रायोजित बेजा कब्जा है। एक देश की राजनीति पर कभी और बात करूंगा।}
                गाँधी ने कहा था उपदेश को पहले अमल में लाओ फिर दूसरों से उम्मीद रखना।
किताब में बहुत कुछ था लेकिन उसकी कुछ बातों की ही चर्चा करूंगा। वैसे इसका हिन्दी अनुवाद भी आ गया है।
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"what might happen to the world when old myths are coupled with new godlike technologies, such as artificial intelligence and genetic engineering."
अर्थात क्या होगा दुनिया का जब पुरानी पौराणिक कथाओं का मेल होगा नई दैवीय तकनीकों जैसे कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और आनुवांशिकी अभियांत्रिकी(GE) से।
.....
आया कुछ समझ में........कोई बात नहीं कुछ और भी सवाल हैं -
            * क्या होगा लोकतंत्र का जब हमें और हमारे अंतर्मन (?)[हमारी पसंद, नापसंद, राजनीतिक रूझान/पसंद] को हमसे/खुदसे कहीं ज्यादा गूगल और फेसबुक जैसे अमूर्त संगठन जानने लगे।
( लोकतंत्र में 98% लोक पर कैसे 2% तंत्र हावी होता है वर्तमान में हम इसके प्रत्यक्ष दृश्य देख ही रहे हैं) [[अमेरिका में यह दुर्घटना बहुत पहले घट चुकी है]][ परिणाम यह होता है कि लोक व तंत्र एकाकार हो जाते है तंत्र का हर कृत्य लोक के माथे पर निशान बनाता चलता है। जैसे लोक ही उत्तरदायी है तंत्र के हर कृत्य के लिये।एकाकार होने के अपने खतरे हैं।यहाँ पहुँचते तक लोक अनायास ही अपने प्रश्न पूछने के अधिकार को खो देते हैं या भूल जाते हैं।फिर अचानक अगर कोई पूछ पड़े तो तंत्र पूछ बैठता है कि पूछने की हिम्मत कैसे की। चलो चुपचाप से नारे लगाओ।
{ जॉर्ज ऑरवेल की "1984" को पढ़ें नारे लगाने की प्रक्रिया समझ जाएंगे। "1984" अभी खत्म नहीं हुई, खत्म होने पर उस पर बात करेंगे। फिलहाल "1984" को साक्षात 2019 में एक देश में घटित होते हुए देखते रहिए। 1947-48 की किताब 2019 में भी सच के रूप में घटित हो रही है(ये आश्चर्य है)}
            ** क्या होगा कल्याणकारी राज्य का जब कंप्यूटर व उससे जनित नई तकनीक मनुष्य अर्थात लोक को जाब मार्केट/ नौकरी के बाजार से बाहर ढकेल देगी; फिर इस वृहद "अनुपयोगी वर्ग" का क्या होगा।
[क्या ये प्रश्न भयानक है, याद करें फरवरी 2019 को जब 45 साल में पहली बार बेरोजगारी अपने चरम पर थी।(मैं एक देश की बात कर रहा हूँ कृपया अलग संदर्भ में ना लें) सितंबर 2019 आते-आते मंदी की भयानक चपेट में हैं एक देश के लोग)]
[यहाँ यह बताना लाजमी है कि % वाले आंकड़े को बेहतर करने के लिये उत्पादन के आंकड़े के बजाए उत्पाद के मूल्य आधारित प्रणाली (फार्मूला) बनाया गया। आधार वर्ष भी बदला गया। फिर भी % वाला आंकड़ा धरातल से रसातल की ओर क्यों जाने के लिये फड़फड़ा रहा है पता नहीं।][ कृपया स्वतंत्र स्त्रोतों एवं विशेषज्ञों से इसकी पुष्टि कर लें। कुछ अन्यथा हो तो बताने का कष्ट करें। वो क्या है ना कि मैं एक देश की अर्थव्यवस्था के बारे में कम जानता हूँ क्योंकि स्कूलों में हमारे देश में अर्थव्यवस्था ठीक से पढ़ाई नहीं जाती]
            *** (Homo sapiens becomes Homo deus)
क्या होगा जब मनुष्य 'बुद्धिमान मानव' से स्वंभू 'देव मानव' बन जाएगा और स्वयं को ही भगवान घोषित कर देगा। यहाँ समझ लें कि 'देव मानव' होना और फर्जी बाबाओं का स्वयं को भगवान घोषित करना अलग है। 'देव मानव' तकनीक और विज्ञान की मदद से सर्व शक्तिशाली मनुष्य की रचना करने से है। [ स्टींफस हॉकिन्स याद है मशीन और तकनीक से बना महान मानव वैज्ञानिक, यह शुरूवात मात्र थी।
        **** इस स्वंभू देव मानव के (क्या मैं इसे भस्मासुर/भस्मादेव कह सकता हूँ ?) धरती पर राजभार/सत्ताभार लेने के बाद धरतीवासियों की क्या प्राथमिकताएं होगी धरती को बचाने की जो पहले ही अपने अस्तित्व के लिये संघर्षरत है। लेकिन देव मानव की शक्तियाँ अतुलनीय हैं अपने समकालीन बुद्धिमान मानव से।
[ Homo Sapiens ने एक परमाणु बम बनाकर इस्तेमाल किया था आज तक उसका ईलाज खोज नहीं पाए हैं Homo Deus (देव मानव) क्या करने वाला है..? सोचिए....सोचते रहिए.....]
                ..क्या आखिर के तीन शब्द प्रताड़ना जैसे लग रहे हैं... 
कोई बात नहीं एक देश में लगभग मुफ्त और लगभग मुक्त डाटा प्रवाह है ( हिमाच्छादित प्रदेश को छोड़कर) मनोरंजन के लिये बहुत कुछ है जहाँ पढ़ना, लिखना, सोचना जैसी वाहयात संक्रियाओं की आवश्यकता नहीं होती। 
                अंत में हरारी  की सभी किताबें कमाल है। एक प्रोफेसर होने के कारण उनके वर्णन शैली व्याख्यात्मक है। इतिहास को लेकर एक नई अंर्तदृष्टि विकसित करती है। जरूर पढ़े। 

....ना...इति.... 


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Copyright Disclaimer: Under Sec. 52 of The Copyright Act 1957.
- The Photograph used of the book is for identification purpose only. 

अशोक पाण्डेय की "उसने गांधी को क्यों मारा" को पढ़ने के बाद पहले अहसास का पहला इजहार........बाकी बातें तो बहुत हैं

प्रस्तावना : पिछले काफी समय से इस ब्लाग की योजना दिमाग में थी। अशोक पाण्डेय की "उसने गांधी को क्यों मारा" की समीक्षा से अपना ये विशेष ब्लाग शुरू करने का फैसला किया। कोई खास कारण नहीं। समसामयिक प्रकाशन है उससे शुरू करना ठीक लगा। इस लेख को सिर्फ कुछ करने का प्रयास मात्र समझा जाए। 
~ नीलाम्बर 

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किताब : "उसने गांधी को क्यों मारा", साजिश और स्त्रोतों की पड़ताल
लेखक : अशोक पाण्डेय
प्रकाशक : राजकमल पेपरबैक्स
संस्करण : दूसरा नवंबर 2020 ( प्रति जो समीक्षाधीन है)
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....अथ....


किताब के बारे में जैसा लेखक बाह्य आवरण पृष्ठ पर अपने चित्र के नीचे लिखते हैं "...इतिहास को भ्रष्ट करने वाले दौर में एक बौद्धिक सत्याग्रह।"
बस यही किताब लिखने का सार है।
भूमिका में लिखा चौथा और अंतिम पैरा व उसके ठीक पहले की लाईन 'हर दस साल में हर विषय पर एक नई किताब की जरूरत।' यह उद्देश्य है।

                पिछले कुछ वर्षों में सोशल मिडिया के माध्यम से महात्मा गांधी के बारे में इतना असत्य का कचरा सायबर स्पेस में फैलाया गया है कि गांधी के बारे में सामान्य समझ की बात करने वाला भी गांधीवादी लगने लगता है और महात्मा गांधी के बारे में जरा सी भी सहानुभूति रखने वाले उसे पसंद करने लगते है "लाइक" करने लगते है। {(पसंद =≠ Like)in cyber space ? Depends} उदाहरण के तौर पर एक नवकिशोर ने अपने स्कूल के किसी अवसर पर गांधी पर एक समझदारी से भरा भाषण दिया, किसी ने उसे रिकार्ड किया और सायबर स्पेस में अपलोड कर दिया, समाज के प्रभावशाली लोग चमत्कृत भाव से उससे प्रभावित हो उसे "फालो/फालो बैक", “लाइक" “रि-शेयर" करने लगे कुल मिलाकर वह लोकप्रिय हो गया इसे वर्तमान में सायबर स्पेस की भाषा में "वायरल" होना कहा जाता है। ये तो भविष्य में ही पता चलेगा कि उसका/वह क्या होगा। उसके नाम की चर्चा नहीं....कम से कम अभी तो नहीं... फिर कभी।
            अशोक पाण्डेय की इस किताब से पहले 'कश्मीरनामा' और 'कश्मीर और कश्मीरी पंडित' नामक दो किताबें प्रकाशित और बहुचर्चित हो चुकी हैं। जिन्हें मैंने नहीं पढ़ा परन्तु चर्चा बहुत देख रखी है सायबर स्पेस में। यह अपने आप में बहुत सुखद अहसास है इस आभासी दुनिया में किताबों (छपी हुई) की चर्चा होते देखना। इसके पहले अगर कोई मुझसे पूछता कि कश्मीर पर कौन सी किताब के बारे में जानते हो तो मेरा जवाब होता कि कल्हण की राजतरंगिणी। मैंने उसे भी नहीं पढ़ा। इससे मुझे ऐसा लगता है कि लेखक अपनी किताबों के लिए उन्हीं विषयों का चुनाव करते हैं जिन पर जनसामान्य में चर्चा/बहस/तर्क/कुर्तक/वाद-विवाद/व्यर्थ विवाद बहुत होते हैं लेकिन जनसामान्य की भाषा में जन सुलभ किताबें उपलब्ध नहीं है। ये अच्छा है कि लेखक के इस विशेष झुकाव की वजह से पाठकों को लाभ हो रहा है और हमारे समय के समकालीन लेखक के द्वारा लिखी गई किताबें उन अनछुए विषयों पर उपलब्ध हो रही हैं।
                "उसने गांधी को क्यों मारा" से पहले यदि किसी को गांधी हत्या के बारे में जानने की जिज्ञासा होती थी तो बाजार में गांधी हत्या के समर्थकों की किताबें ही आसानी से उपलब्ध होती थी। जैसे अगर आपको हिटलर के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न होती है और आप किसी किताब दुकान के बाहर खड़े होकर शेल्फ में देखते हैं तो आपको सबसे पहले 'मेन कैम्फ' ही दिखेगी विभिन्न प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित। उनके आवरण पर हिटलर की मनोहारी सी तस्वीर HD Quality की छपी दिखेगी। कमबख्त आँखे न चाहते हुए भी मोहित सी हो जाती हैं। उसी शैली में गांधी के हत्यारे की तस्वीर भी उसके समर्थन में लिखी किताबों के आवरण पर होती है। अंग्रेजी की कहावत कि "Don’t judge a book by its cover.” एक ऐसा उपदेश है जिसे कभी जीवन में सफलतापूर्वक माना नहीं जा सकता। आलोच्य किताब का आवरण खास है खलनायक की तस्वीर नहीं। गांधी की भी तस्वीर नहीं। परंतु तस्वीर एक पिस्टल की जिसके आगे लिखा है 'साजिश और स्त्रोतों की पड़ताल' । किताब के शीर्षक में क्यों शब्द ही आकर्षण का केन्द्र हैं।
                मैं जब किसी लेखक की किताब पढ़ता हूँ तो  देखता हूँ कि सामान्य तौर पर लेखक द्वारा कम से कम 1-2 पेज भरकर अन्य लोगों का जिक्र कर धन्यवाद ज्ञापित करते हैं उनके सहयोग के लिये। आलोच्य किताब में संर्दभ ग्रन्थों की सूची व पुस्तक सूची देखकर यह समझना थोड़ा कठिन है कि संपादकीय सहयोग/पांडुलिपि सुधार/प्रूफ चेक के कार्य में कोई था कि नहीं। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ स्पष्ट कर देना चााहता हूँ, जैसे कि ... पृष्ठ-134 में जिक्र है “122 बोर की पिस्टल”, "फिर उसके बदले में 132 बोर की रिवाल्वर”, पृष्ठ-139 में यह .132 बोर की रिवाल्वर हो जाती है। एक दशमलव से आकार का अनर्थ तो होता है पर यह खास मायने नहीं रखता जब किताब हथियारों के बारे में नहीं हो। वैसे कैलीबर और बोर में अंतर होता है। लेकिन मैं कहना चाहता हूँ प्रूफ रिडिंग के समय किसी का ध्यान क्यों नहीं गया। और द्वितीय संस्करण भी छप चुका है। पृष्ठ-197 अंतिम पैरा शुरूआत “1888 में अपने निर्माण के समय से कांग्रेस ने.....” कांग्रेस पार्टी की स्थापना 1885 में हुई थी। 1888 बिना लिखे "अपने निर्माण ....” से वाक्य शुरू होता तो भी अपना मकसद पूरा कर लेता। अनावश्यक तथ्यात्मक वर्णन करने के चक्कर में गलतियां हुई है। 1888 में यदि कांग्रेस ने कुछ विशेष किया था तो उसका जिक्र कर बात रखते तो भी भावान्तर नहीं उत्पन्न होता। इसके अलावा क्या खेर=खरे ? मुझे नहीं मालूम। किताब में जहाँ कहीं भी बी.जी. खेर आया है देख लें। मैं लेखक से कहना चाहता हूँ आप लेखक हैं संभल कर लिखें और संभल कर प्रकाशित करें। टंकण त्रुटि के नाम पर प्याज के रेट कम करते करते ब्याज के रेट कम न करें।
                    किताब में सामान्य पाठक के लिये बहुत कुछ है लेकिन जहाँ तक मेरी बात है लगभग 80% किताब खत्म करते-करते ऐसा लगने लगा कि कपूर आयोग की रिपोर्ट को सीधे पढ़ लेता हूँ। चाहता बहुत दिनों से था, परंतु जब किसी किताब में बहुतेरे तथ्य हों तो मुझे स्त्रोत की प्यास लगती है। अंतत: डाउनलोड कर कुछ हिस्सों को देखा। कपूर आयोग  की रिपोर्ट। वह भी खुद में रोचक रचना है रहस्य से परदे उठाती रचना।
                    ऊपर जिन तथ्यात्मक उलटबासियों की चर्चा की है उसके अलावा और भी हो सकती हैं, ऊपर जो है वो सामान्य दृष्टि से ही खटकती है और पहली नजर में अटकती हैं। दरअसल मैं सवाल सावधानी का उठा रहा हूँ। जब कोई किताब बहुत महत्वपूर्ण श्रेणी की हो और अपने समय (के इतिहास) में शामिल होने जा रही हो तब ये सावधानियाँ बहुत जरूरी है। प्रकाशक ने इसकी श्रेणी रखी है : इतिहास । परंतु  होना चाहिए था : इतिहास पर लोकप्रिय लेखन / ऐतिहासिक घटना पर लेखन । 
                        अब वो बात जिसकी वजह से मैं यह सब लिखने के लिये मजबूर हुआ। किताब में मैंने एक नयी शैली देखी जिसे पहले कभी मैंने अनुभव नहीं किया। तू-तड़ाक शैली हिन्दी साहित्य में इसके लिए कोई अलंकारिक नाम हो तो पता नहीं। आम तौर पर इस तरह की किताबों में अन्य पुरूष(third person) में वर्णन किया जाता है परंतु यहाँ द्वितीय पुरूष (second person=You) में वर्णन है। यथा पेज-207 में नथूराम से लेखक सवाल कर रहा है। सच में। पेज-215 में उलाहना देना एक मरे हुए आदमी को। पेज-240 में एक निर्णयात्मक सी उलाहना पुन: मरे आदमी को। ये हो क्या रहा है। एक कायर को मरने के बाद अमरता प्रदान करने की कोशिश। आमतौर पर लेखक द्वितीय पुरूष में पाठक से बात करता है। मतलब लेखक आश्वस्त हैं कि उनकी किताब को नथूराम पढ़ रहा है और लेखक से तादाम्य बिठा रहा है। सामान्य पाठकों के साथ ये बड़ा अन्याय है। लेखक ने एक बड़ा एहसान किया किताब के शिर्षक में 'उसने' शब्द का प्रयोग करके, नहीं तो अगर उसी शैली में शिर्षक होता "तुमने गांधी को क्यों मारा" तो हर पाठक को लगता कि उसे ही नथूराम बना दिया। मेरी नितांत निजी राय है कि इससे बचा जा सकता था। इसके बिना भी उद्देश्य पूरा हो रहा था। पर यह लेखक पर निर्भर करता है कि वह अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किस रूप में इस्तेमाल करता है।
                        मैंने अशोक जी को ट्वीटर पर भी देखा कि अपने ट्रोल्स के साथ वे उलझ (engage हो) जाते हैं। यही तो चाहिए ट्रोल्स को, गांधी हत्या/हत्यारे के समर्थकों को, मान्यता(Validity)। कैसे? इसके लिये एक स्वतंत्र लेख की आवश्यकता होगी। फिर भी संक्षेप में समझ लिजिए कि सायबर स्पेस में सोशल मिडिया एक हिस्सा मात्र है जहाँ अपने अस्तित्व केे लिये चाहिेए impression या तकनीकी तौर पर डिजीटल दुनिया के Algorithm में ज्यादा से ज्यादा engagment/ply/occupy रखना। वास्तविक दुनिया में इस तकनीक का सबसे सफल प्रयोगकर्ता था गोएबल्स जर्मनी वाला। विचार को इसी तरह मान्यता दिलाई जाती है, सोशल मिडिया में चुटकुले, कार्टून, मिथ्या मिथकीय बचपन की महान कहानियाँ, मेम, न्यूज चैनल में बहस, नाम जप और इस तरह एक नए भगवान का जन्म हो जाता है। 33 करोड़ तो पहले हैं ही। भक्त नये नहीं खोजने पड़ते बस चित्र बदलना पड़ता है। engage का उल्टा है ignore । व्यक्तिवाद को छोड़िए विचारधारा पर ध्यान केंद्रित किजिए।
पूर्वांत मत :      किताब पढ़ने योग्य है। गांधी साहित्य के जरिये गांधी के बारे पढ़ लेने के बाद गांधी हत्या के बारे जरा विस्तार से जानने की जिज्ञासा को कुछ हद तक शांत करती है यह किताब। वैसे गहन शोधपरक अध्ययन करना हो तो कपूर आयोग की रिपोर्ट तो आनलाईन फ्री में उपलब्ध है ही। अंतिम सलाह UPSC की तैयारी में इस किताब से तथ्यात्मक आंकड़ों का प्रयोग न ही करें तो अच्छा होगा। बहुत ही लापरवाही के साथ बिना सम्यक प्रूफ चेक के किताब प्रकाशित की गई है। फटाफट लिखने, उससे भी फटाफट छापने और सबसे फटाफट बिकने के लिये किताब रची गई प्रतीत होती है। 
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P.S. : इस आलोचनात्मक लेख को प्रकाशित करने के बाद किताब के लेखक को इसका लिंक भेजा, लिंक प्राप्त करने के करीब 5 मिनट बाद ही लेखक ने अपनी प्रतिक्रिया भेज दी। (मैं कृतार्थ हुआ) परंतु  उस अति (कुछ ज्यादा ही 'अति') त्वरित प्रतिक्रिया के कारण कुछ शब्दों को बोल्ड कर दिया है जिससे पढ़ने वाले उस शब्द का सही अर्थ ग्रहण करने की सोचे। कुछ बुनियादी परिभाषाएं भी लिख रहा हूँ जो मेरे मन में है। ऐसा करना इसलिए जरुरी हो गया क्योंकि जब एक लेखक अपनी स्वयं की किताब की आलोचना को पढ़ कर नहीं समझ पाया तो सामान्य पाठक तो ज्यादा कन्फ्यूज हो सकते हैं, अत: अपनी क्षमता अनुसार आवश्यक व्याख्या कर रहा हूँ। समीक्षाधीन किताब पढ़ चुके लोग मुझे क्षमा करें इस आत्म व्याख्या के लिये। परंतु यह उस अति त्वरित प्रतिक्रिया का परिणाम है जो लेखक को सादर अर्पित है।  (अंतिम वाक्य में यह शब्द सर्वनाम है)
संज्ञा- किसी व्यक्ति, वस्तु या स्थान का नाम।  जैसे- दिल्ली, महात्मा गांधी, नथूराम गोडसे, गिलास, पिस्टल, आदि।
सर्वनाम- संज्ञा के बदले प्रयुक्त होने वाला शब्द। जैसे- तुम, वह, हम, मैं, मेरा, उसका, तुम्हारा इत्यादि । आमतौर पर किसी प्रसंग में आ चुके संज्ञा के बदले सर्वनाम प्रयुक्त होता है। ताकि बारम्बार संज्ञा शब्द का दुहराव न हो। 
मुहावरे व अलंकार- हर भाषा सामान्यत: अपने स्वभाषिक मुहावरों में गढ़ी होती है एवं भाषा में चमत्कारिक प्रभाव उत्पन्न करने के लिये भाषा का आलंकारिक प्रयोग किया जाता है। 
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता- हर लेखक को अपने विचारों को अपने तरीके से अभिव्यक्त करने की स्वाभाविक आजादी होती है। आमतौर पर लेखक समझ में आने योग्य शब्द और वाक्यों की रचना करता है परंतु कभी-कभी लेखक/रचनाकार कुछ विशेष प्रभाव उत्पन्न करने के लिए व्याकरणिक नियमों में/से पर्याप्त छूट ले लेता है जो अपवाद स्वरुप सहज स्वीकार्य होती है। आमतौर पर कवि ऐसा करते हैं। कुछ लोग खुद को परम ज्ञानी समझ कर बाकि पूरी दुनिया को अल्पज्ञानी या मूर्ख समझने की भूल करते हैं खुद को 'वन मैन आर्मी' समझकर दुनिया पर अपनी विद्वता लाद देने का दुरूह कार्य करते हैं। जब लेखक उन चिजों का वर्णन करता है जो उसकी विशेषज्ञता के दायरे से बाहर की है तो उन विषयों में निष्णात व्यक्तियों की लेखक मदद लेता है और उनको धन्यवाद ज्ञापित करता है न कि 'अहं सर्वस्वम' के भाव से ग्रस्त होकर जो पाओ वो लिख दो । बहुत कम समय में लोकप्रियता अहंकार उत्पन्न करता है जब 'वह'* हजम न हो। (*=यहाँ वह सर्वनाम है) । 

[P.S.- अगर भविष्य में कुछ और भाव उत्पन्न हुए तो लेख अपडेट किया जाएगा। मेरी त्रुटि पता चलने पर भी अपडेट किया जाएगा। कुछ भी अंतिम विचार नहीं।] 
 ....ना...इति... 


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कुछ यादृच्छिक विचार
"महान रचनाएं एकल उद्यम नहीं हो सकती।" 
~ स्वयं रचित
"कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई मनुष्य जिसका बहुत विरोध कर रहा हो उसके जैसा ही बन जाता है, प्रतिक्रिया देते-देते प्रतिबिंब बन जाता है। जिस विचारधारा का विरोध कर रहे हैं उसी की प्रतिछवि कहीं अंतस में ध्वनित हो रही होती है और स्वयं को पता ही नहीं चलता। सब कुछ एकाकार होता चला जाता है। जो लोग बाहर से देख रहे होते हैं उन्हें यह अंतर समझ नहीं आता और वे वांछित प्रतिक्रिया न देकर जो जैसा है बस सब ठीक है कहकर छोड़ देते हैं।......शेष किसी स्वतंत्र लेख में।

सत्योत्तर* काल में लिखी रचनाओं को सावधानी से पढ़ना जरूरी, संदर्भ: डॉ. सुरेश पंत की 'शब्दों के साथ-साथ'

(सत्योत्तर=Post-truth Era) --------------- किताब      : 'शब्दों के साथ-साथ',, लेखक      : डॉ. सुरेश पंत प्रकाशक    : हिंद पॉकेट बुक्...