बुधवार, 28 अप्रैल 2021

अशोक पाण्डेय की "उसने गांधी को क्यों मारा" को पढ़ने के बाद पहले अहसास का पहला इजहार........बाकी बातें तो बहुत हैं

प्रस्तावना : पिछले काफी समय से इस ब्लाग की योजना दिमाग में थी। अशोक पाण्डेय की "उसने गांधी को क्यों मारा" की समीक्षा से अपना ये विशेष ब्लाग शुरू करने का फैसला किया। कोई खास कारण नहीं। समसामयिक प्रकाशन है उससे शुरू करना ठीक लगा। इस लेख को सिर्फ कुछ करने का प्रयास मात्र समझा जाए। 
~ नीलाम्बर 

-----------------------------------------------------------------------
किताब : "उसने गांधी को क्यों मारा", साजिश और स्त्रोतों की पड़ताल
लेखक : अशोक पाण्डेय
प्रकाशक : राजकमल पेपरबैक्स
संस्करण : दूसरा नवंबर 2020 ( प्रति जो समीक्षाधीन है)
------------------------------------------------------------------------
....अथ....


किताब के बारे में जैसा लेखक बाह्य आवरण पृष्ठ पर अपने चित्र के नीचे लिखते हैं "...इतिहास को भ्रष्ट करने वाले दौर में एक बौद्धिक सत्याग्रह।"
बस यही किताब लिखने का सार है।
भूमिका में लिखा चौथा और अंतिम पैरा व उसके ठीक पहले की लाईन 'हर दस साल में हर विषय पर एक नई किताब की जरूरत।' यह उद्देश्य है।

                पिछले कुछ वर्षों में सोशल मिडिया के माध्यम से महात्मा गांधी के बारे में इतना असत्य का कचरा सायबर स्पेस में फैलाया गया है कि गांधी के बारे में सामान्य समझ की बात करने वाला भी गांधीवादी लगने लगता है और महात्मा गांधी के बारे में जरा सी भी सहानुभूति रखने वाले उसे पसंद करने लगते है "लाइक" करने लगते है। {(पसंद =≠ Like)in cyber space ? Depends} उदाहरण के तौर पर एक नवकिशोर ने अपने स्कूल के किसी अवसर पर गांधी पर एक समझदारी से भरा भाषण दिया, किसी ने उसे रिकार्ड किया और सायबर स्पेस में अपलोड कर दिया, समाज के प्रभावशाली लोग चमत्कृत भाव से उससे प्रभावित हो उसे "फालो/फालो बैक", “लाइक" “रि-शेयर" करने लगे कुल मिलाकर वह लोकप्रिय हो गया इसे वर्तमान में सायबर स्पेस की भाषा में "वायरल" होना कहा जाता है। ये तो भविष्य में ही पता चलेगा कि उसका/वह क्या होगा। उसके नाम की चर्चा नहीं....कम से कम अभी तो नहीं... फिर कभी।
            अशोक पाण्डेय की इस किताब से पहले 'कश्मीरनामा' और 'कश्मीर और कश्मीरी पंडित' नामक दो किताबें प्रकाशित और बहुचर्चित हो चुकी हैं। जिन्हें मैंने नहीं पढ़ा परन्तु चर्चा बहुत देख रखी है सायबर स्पेस में। यह अपने आप में बहुत सुखद अहसास है इस आभासी दुनिया में किताबों (छपी हुई) की चर्चा होते देखना। इसके पहले अगर कोई मुझसे पूछता कि कश्मीर पर कौन सी किताब के बारे में जानते हो तो मेरा जवाब होता कि कल्हण की राजतरंगिणी। मैंने उसे भी नहीं पढ़ा। इससे मुझे ऐसा लगता है कि लेखक अपनी किताबों के लिए उन्हीं विषयों का चुनाव करते हैं जिन पर जनसामान्य में चर्चा/बहस/तर्क/कुर्तक/वाद-विवाद/व्यर्थ विवाद बहुत होते हैं लेकिन जनसामान्य की भाषा में जन सुलभ किताबें उपलब्ध नहीं है। ये अच्छा है कि लेखक के इस विशेष झुकाव की वजह से पाठकों को लाभ हो रहा है और हमारे समय के समकालीन लेखक के द्वारा लिखी गई किताबें उन अनछुए विषयों पर उपलब्ध हो रही हैं।
                "उसने गांधी को क्यों मारा" से पहले यदि किसी को गांधी हत्या के बारे में जानने की जिज्ञासा होती थी तो बाजार में गांधी हत्या के समर्थकों की किताबें ही आसानी से उपलब्ध होती थी। जैसे अगर आपको हिटलर के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न होती है और आप किसी किताब दुकान के बाहर खड़े होकर शेल्फ में देखते हैं तो आपको सबसे पहले 'मेन कैम्फ' ही दिखेगी विभिन्न प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित। उनके आवरण पर हिटलर की मनोहारी सी तस्वीर HD Quality की छपी दिखेगी। कमबख्त आँखे न चाहते हुए भी मोहित सी हो जाती हैं। उसी शैली में गांधी के हत्यारे की तस्वीर भी उसके समर्थन में लिखी किताबों के आवरण पर होती है। अंग्रेजी की कहावत कि "Don’t judge a book by its cover.” एक ऐसा उपदेश है जिसे कभी जीवन में सफलतापूर्वक माना नहीं जा सकता। आलोच्य किताब का आवरण खास है खलनायक की तस्वीर नहीं। गांधी की भी तस्वीर नहीं। परंतु तस्वीर एक पिस्टल की जिसके आगे लिखा है 'साजिश और स्त्रोतों की पड़ताल' । किताब के शीर्षक में क्यों शब्द ही आकर्षण का केन्द्र हैं।
                मैं जब किसी लेखक की किताब पढ़ता हूँ तो  देखता हूँ कि सामान्य तौर पर लेखक द्वारा कम से कम 1-2 पेज भरकर अन्य लोगों का जिक्र कर धन्यवाद ज्ञापित करते हैं उनके सहयोग के लिये। आलोच्य किताब में संर्दभ ग्रन्थों की सूची व पुस्तक सूची देखकर यह समझना थोड़ा कठिन है कि संपादकीय सहयोग/पांडुलिपि सुधार/प्रूफ चेक के कार्य में कोई था कि नहीं। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ स्पष्ट कर देना चााहता हूँ, जैसे कि ... पृष्ठ-134 में जिक्र है “122 बोर की पिस्टल”, "फिर उसके बदले में 132 बोर की रिवाल्वर”, पृष्ठ-139 में यह .132 बोर की रिवाल्वर हो जाती है। एक दशमलव से आकार का अनर्थ तो होता है पर यह खास मायने नहीं रखता जब किताब हथियारों के बारे में नहीं हो। वैसे कैलीबर और बोर में अंतर होता है। लेकिन मैं कहना चाहता हूँ प्रूफ रिडिंग के समय किसी का ध्यान क्यों नहीं गया। और द्वितीय संस्करण भी छप चुका है। पृष्ठ-197 अंतिम पैरा शुरूआत “1888 में अपने निर्माण के समय से कांग्रेस ने.....” कांग्रेस पार्टी की स्थापना 1885 में हुई थी। 1888 बिना लिखे "अपने निर्माण ....” से वाक्य शुरू होता तो भी अपना मकसद पूरा कर लेता। अनावश्यक तथ्यात्मक वर्णन करने के चक्कर में गलतियां हुई है। 1888 में यदि कांग्रेस ने कुछ विशेष किया था तो उसका जिक्र कर बात रखते तो भी भावान्तर नहीं उत्पन्न होता। इसके अलावा क्या खेर=खरे ? मुझे नहीं मालूम। किताब में जहाँ कहीं भी बी.जी. खेर आया है देख लें। मैं लेखक से कहना चाहता हूँ आप लेखक हैं संभल कर लिखें और संभल कर प्रकाशित करें। टंकण त्रुटि के नाम पर प्याज के रेट कम करते करते ब्याज के रेट कम न करें।
                    किताब में सामान्य पाठक के लिये बहुत कुछ है लेकिन जहाँ तक मेरी बात है लगभग 80% किताब खत्म करते-करते ऐसा लगने लगा कि कपूर आयोग की रिपोर्ट को सीधे पढ़ लेता हूँ। चाहता बहुत दिनों से था, परंतु जब किसी किताब में बहुतेरे तथ्य हों तो मुझे स्त्रोत की प्यास लगती है। अंतत: डाउनलोड कर कुछ हिस्सों को देखा। कपूर आयोग  की रिपोर्ट। वह भी खुद में रोचक रचना है रहस्य से परदे उठाती रचना।
                    ऊपर जिन तथ्यात्मक उलटबासियों की चर्चा की है उसके अलावा और भी हो सकती हैं, ऊपर जो है वो सामान्य दृष्टि से ही खटकती है और पहली नजर में अटकती हैं। दरअसल मैं सवाल सावधानी का उठा रहा हूँ। जब कोई किताब बहुत महत्वपूर्ण श्रेणी की हो और अपने समय (के इतिहास) में शामिल होने जा रही हो तब ये सावधानियाँ बहुत जरूरी है। प्रकाशक ने इसकी श्रेणी रखी है : इतिहास । परंतु  होना चाहिए था : इतिहास पर लोकप्रिय लेखन / ऐतिहासिक घटना पर लेखन । 
                        अब वो बात जिसकी वजह से मैं यह सब लिखने के लिये मजबूर हुआ। किताब में मैंने एक नयी शैली देखी जिसे पहले कभी मैंने अनुभव नहीं किया। तू-तड़ाक शैली हिन्दी साहित्य में इसके लिए कोई अलंकारिक नाम हो तो पता नहीं। आम तौर पर इस तरह की किताबों में अन्य पुरूष(third person) में वर्णन किया जाता है परंतु यहाँ द्वितीय पुरूष (second person=You) में वर्णन है। यथा पेज-207 में नथूराम से लेखक सवाल कर रहा है। सच में। पेज-215 में उलाहना देना एक मरे हुए आदमी को। पेज-240 में एक निर्णयात्मक सी उलाहना पुन: मरे आदमी को। ये हो क्या रहा है। एक कायर को मरने के बाद अमरता प्रदान करने की कोशिश। आमतौर पर लेखक द्वितीय पुरूष में पाठक से बात करता है। मतलब लेखक आश्वस्त हैं कि उनकी किताब को नथूराम पढ़ रहा है और लेखक से तादाम्य बिठा रहा है। सामान्य पाठकों के साथ ये बड़ा अन्याय है। लेखक ने एक बड़ा एहसान किया किताब के शिर्षक में 'उसने' शब्द का प्रयोग करके, नहीं तो अगर उसी शैली में शिर्षक होता "तुमने गांधी को क्यों मारा" तो हर पाठक को लगता कि उसे ही नथूराम बना दिया। मेरी नितांत निजी राय है कि इससे बचा जा सकता था। इसके बिना भी उद्देश्य पूरा हो रहा था। पर यह लेखक पर निर्भर करता है कि वह अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किस रूप में इस्तेमाल करता है।
                        मैंने अशोक जी को ट्वीटर पर भी देखा कि अपने ट्रोल्स के साथ वे उलझ (engage हो) जाते हैं। यही तो चाहिए ट्रोल्स को, गांधी हत्या/हत्यारे के समर्थकों को, मान्यता(Validity)। कैसे? इसके लिये एक स्वतंत्र लेख की आवश्यकता होगी। फिर भी संक्षेप में समझ लिजिए कि सायबर स्पेस में सोशल मिडिया एक हिस्सा मात्र है जहाँ अपने अस्तित्व केे लिये चाहिेए impression या तकनीकी तौर पर डिजीटल दुनिया के Algorithm में ज्यादा से ज्यादा engagment/ply/occupy रखना। वास्तविक दुनिया में इस तकनीक का सबसे सफल प्रयोगकर्ता था गोएबल्स जर्मनी वाला। विचार को इसी तरह मान्यता दिलाई जाती है, सोशल मिडिया में चुटकुले, कार्टून, मिथ्या मिथकीय बचपन की महान कहानियाँ, मेम, न्यूज चैनल में बहस, नाम जप और इस तरह एक नए भगवान का जन्म हो जाता है। 33 करोड़ तो पहले हैं ही। भक्त नये नहीं खोजने पड़ते बस चित्र बदलना पड़ता है। engage का उल्टा है ignore । व्यक्तिवाद को छोड़िए विचारधारा पर ध्यान केंद्रित किजिए।
पूर्वांत मत :      किताब पढ़ने योग्य है। गांधी साहित्य के जरिये गांधी के बारे पढ़ लेने के बाद गांधी हत्या के बारे जरा विस्तार से जानने की जिज्ञासा को कुछ हद तक शांत करती है यह किताब। वैसे गहन शोधपरक अध्ययन करना हो तो कपूर आयोग की रिपोर्ट तो आनलाईन फ्री में उपलब्ध है ही। अंतिम सलाह UPSC की तैयारी में इस किताब से तथ्यात्मक आंकड़ों का प्रयोग न ही करें तो अच्छा होगा। बहुत ही लापरवाही के साथ बिना सम्यक प्रूफ चेक के किताब प्रकाशित की गई है। फटाफट लिखने, उससे भी फटाफट छापने और सबसे फटाफट बिकने के लिये किताब रची गई प्रतीत होती है। 
-------- . -----. ---- .--------.------------.-------------.------------. ------------.--------- --------.-------- . -----------.
P.S. : इस आलोचनात्मक लेख को प्रकाशित करने के बाद किताब के लेखक को इसका लिंक भेजा, लिंक प्राप्त करने के करीब 5 मिनट बाद ही लेखक ने अपनी प्रतिक्रिया भेज दी। (मैं कृतार्थ हुआ) परंतु  उस अति (कुछ ज्यादा ही 'अति') त्वरित प्रतिक्रिया के कारण कुछ शब्दों को बोल्ड कर दिया है जिससे पढ़ने वाले उस शब्द का सही अर्थ ग्रहण करने की सोचे। कुछ बुनियादी परिभाषाएं भी लिख रहा हूँ जो मेरे मन में है। ऐसा करना इसलिए जरुरी हो गया क्योंकि जब एक लेखक अपनी स्वयं की किताब की आलोचना को पढ़ कर नहीं समझ पाया तो सामान्य पाठक तो ज्यादा कन्फ्यूज हो सकते हैं, अत: अपनी क्षमता अनुसार आवश्यक व्याख्या कर रहा हूँ। समीक्षाधीन किताब पढ़ चुके लोग मुझे क्षमा करें इस आत्म व्याख्या के लिये। परंतु यह उस अति त्वरित प्रतिक्रिया का परिणाम है जो लेखक को सादर अर्पित है।  (अंतिम वाक्य में यह शब्द सर्वनाम है)
संज्ञा- किसी व्यक्ति, वस्तु या स्थान का नाम।  जैसे- दिल्ली, महात्मा गांधी, नथूराम गोडसे, गिलास, पिस्टल, आदि।
सर्वनाम- संज्ञा के बदले प्रयुक्त होने वाला शब्द। जैसे- तुम, वह, हम, मैं, मेरा, उसका, तुम्हारा इत्यादि । आमतौर पर किसी प्रसंग में आ चुके संज्ञा के बदले सर्वनाम प्रयुक्त होता है। ताकि बारम्बार संज्ञा शब्द का दुहराव न हो। 
मुहावरे व अलंकार- हर भाषा सामान्यत: अपने स्वभाषिक मुहावरों में गढ़ी होती है एवं भाषा में चमत्कारिक प्रभाव उत्पन्न करने के लिये भाषा का आलंकारिक प्रयोग किया जाता है। 
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता- हर लेखक को अपने विचारों को अपने तरीके से अभिव्यक्त करने की स्वाभाविक आजादी होती है। आमतौर पर लेखक समझ में आने योग्य शब्द और वाक्यों की रचना करता है परंतु कभी-कभी लेखक/रचनाकार कुछ विशेष प्रभाव उत्पन्न करने के लिए व्याकरणिक नियमों में/से पर्याप्त छूट ले लेता है जो अपवाद स्वरुप सहज स्वीकार्य होती है। आमतौर पर कवि ऐसा करते हैं। कुछ लोग खुद को परम ज्ञानी समझ कर बाकि पूरी दुनिया को अल्पज्ञानी या मूर्ख समझने की भूल करते हैं खुद को 'वन मैन आर्मी' समझकर दुनिया पर अपनी विद्वता लाद देने का दुरूह कार्य करते हैं। जब लेखक उन चिजों का वर्णन करता है जो उसकी विशेषज्ञता के दायरे से बाहर की है तो उन विषयों में निष्णात व्यक्तियों की लेखक मदद लेता है और उनको धन्यवाद ज्ञापित करता है न कि 'अहं सर्वस्वम' के भाव से ग्रस्त होकर जो पाओ वो लिख दो । बहुत कम समय में लोकप्रियता अहंकार उत्पन्न करता है जब 'वह'* हजम न हो। (*=यहाँ वह सर्वनाम है) । 

[P.S.- अगर भविष्य में कुछ और भाव उत्पन्न हुए तो लेख अपडेट किया जाएगा। मेरी त्रुटि पता चलने पर भी अपडेट किया जाएगा। कुछ भी अंतिम विचार नहीं।] 
 ....ना...इति... 


Copyright Disclaimer: Under Sec. 52 of The Copyright Act 1957.
- The Photograph used of the book is for identification purpose only.  
-------------------- 
कुछ यादृच्छिक विचार
"महान रचनाएं एकल उद्यम नहीं हो सकती।" 
~ स्वयं रचित
"कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई मनुष्य जिसका बहुत विरोध कर रहा हो उसके जैसा ही बन जाता है, प्रतिक्रिया देते-देते प्रतिबिंब बन जाता है। जिस विचारधारा का विरोध कर रहे हैं उसी की प्रतिछवि कहीं अंतस में ध्वनित हो रही होती है और स्वयं को पता ही नहीं चलता। सब कुछ एकाकार होता चला जाता है। जो लोग बाहर से देख रहे होते हैं उन्हें यह अंतर समझ नहीं आता और वे वांछित प्रतिक्रिया न देकर जो जैसा है बस सब ठीक है कहकर छोड़ देते हैं।......शेष किसी स्वतंत्र लेख में।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

सत्योत्तर* काल में लिखी रचनाओं को सावधानी से पढ़ना जरूरी, संदर्भ: डॉ. सुरेश पंत की 'शब्दों के साथ-साथ'

(सत्योत्तर=Post-truth Era) --------------- किताब      : 'शब्दों के साथ-साथ',, लेखक      : डॉ. सुरेश पंत प्रकाशक    : हिंद पॉकेट बुक्...