गुरुवार, 28 मार्च 2024

सत्योत्तर* काल में लिखी रचनाओं को सावधानी से पढ़ना जरूरी, संदर्भ: डॉ. सुरेश पंत की 'शब्दों के साथ-साथ'

(सत्योत्तर=Post-truth Era)
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किताब    : 'शब्दों के साथ-साथ',,
लेखक    : डॉ. सुरेश पंत
प्रकाशक   : हिंद पॉकेट बुक्स / पैंगुइन रैंडम हाउस
संस्करण   : संभवत: प्रथम 2023 [जानकारी किताब में स्पष्ट नहीं है] ( प्रति जो समीक्षाधीन है) 
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    किताब की चर्चा से पहले लेखक के बारे में यह जानना जरूरी है कि डॉ. सुरेश पंत संस्कृत, हिन्दी, तमिल, और रूसी भाषा के जानकार व्यक्ति है, ट्वीटर (वर्तमान एक्स) पर अपने भाषायी ज्ञान के चलते बेहद लोकप्रिय शख्स हैं। शिक्षक हैं भाषायी मार्गदर्शक हैं बहुतों के, मेरे भी (एकलव्य टाइप)।

    यहाँ मैं सत्योत्तर काल की अवधारणा का लेख में जिक्र कर रहा हूँ क्योंकि वर्तमान समय का सत्य यही है। [और यह वाक्य एक लूप (LOOP) है] सत्योत्तर काल के बारे में विस्तार से जानने के लिए थोड़ा अनुसंधान कर ले { हालांकि यह सत्योत्तर काल का लक्षण बिलकुल भी नहीं है} या मेरे लेख का इंतजार करें। मेरे सीमित ज्ञान से अलबत्ता आपकी भावनाओं को ठेस लग सकती है जो सत्योत्तर काल का एक प्रमुख लक्षण है। तो आप अपने ज्ञान की बारिश मुझ पर करने लिए मेरे ट्वीटर टाइमलाइन पर आ जाइए ये सत्योत्तर काल दूसरा प्रमुख लक्षण है { नेकी कहीं भी करो डालना सोशल मिडिया पर ही है}। इस पर एक स्वतंत्र लेख लिखना समीचीन होगा।
    इस लेख में डॉ. सुरेश पंत की हालिया प्रकाशित किताब 'शब्दों के साथ-साथ' की संक्षिप्त आलोचना और शुद्ध रूप से मेरे विचार होंगे इसका उनकी विद्वता से और उनकी विशेषज्ञता से कोई लेना देना नहीं है।
 
   जब से इस किताब के बारे में ट्वीटर पर चर्चा शुरू हुई थी तभी से मैं इसे पढ़ना चाहता था। फिर इसे मंगवाया भी। किताब की प्रस्तावना "कुछ कहना है...” में पहले पैरा के दूसरी ही पंक्ति में डॉ. साहब ने लिख दिया कि संविधान ने हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मान दिया। बस यहीं पूरा मूड खराब हो गया। इतने विद्वान व्यक्ति से इस लापरवाही की उम्मीद बिलकुल नहीं थी।
भारत का संविधान

"अनुच्छेद 343- संघ की राजभाषा- (1) संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। ...”

    मैं यहाँ पर अपना विचार रखना चाहता हूँ कि हिन्दी जो कि निरंतर विकासशील व समावेशी भाषा है उससे प्रेम करने वाले और उसे व्यवहार में लाने वाले लोग अचानक से इतने पूर्वाग्रह से ग्रसित क्यों हो जाते हैं जब भी राष्ट्र और भाषा की बात आती है। एक ओर तो ये कहेंगे कि भारत को यूरोप या विदेशी पैमाने या चश्में से न देखा जाए और दूसरी ओर हिन्दी को राष्ट्र भाषा के तौर पर स्थापित करने के लिए यूरोप या पूर्वोत्तर के देशों का उदाहरण देंगे जहाँ का क्षेत्रफल और जनसंख्या भारत के छोटे-छोटे प्रदेशों के सामने भी कहीं नहीं टिकती। राष्ट्रवाद की यूरोपीय अवधारणा के आधार पर पर आप भारत की व्याख्या नहीं कर सकते हैं। हिमालय से नीचे हिंद महासागर तक के भू-भाग को भारतीय उपमहाद्वीप कहा जाता है क्योंकि जैसे एक महाद्वीप में अनेक देश होते हैं उसी तरह यहाँ भी अनेक देश हैं और भारत इतनी ज्यादा विविधताओं को समेटे हुए है कि छोटे-मोटे देश जो इस उपमहाद्वीप में है उन सभी की संस्कृतियों की सामासिक अभिव्यक्ति "भारतीय उपमहाद्वीप" के अंतर्गत हो जाती है। यह अपने आप में विशद अध्ययन व विवेचन का विषय है।
    पुन: किताब पर आते हुए मैं कहना चाहूंगा कि लेखक को सबसे पहले ही बिंदु में राजभाषा और राष्ट्रभाषा के अंतर पर चर्चा कर लेनी थी किताब के भावानुरूप। इससे सत्योत्तर काल के युवाओं को थोड़ा प्रकाश मिलता इस विषय पर। परंतु शायद लेखक भी सत्योत्तर काल के चाल से स्वयं को निरपेक्ष नहीं रख पाए और तथ्यों पर भावनाओं का आरोहण कर दिया। शायद तथ्यात्मक सच से किताब की बिक्री पर असर पड़ता इसलिए इसका लोप कर दिया गया हो। ये समझौता मुझे अच्छा नहीं लगा। जिन शब्दों का विवेचन किया गया है उनके चयन का आधार क्या है ये समझ में नहीं आता। क्योंकि बहुत से शब्द इसमें हैं ही नहीं जिनके बारे में एक विद्यार्थी के रूप में बहुत परेशानी आती है। एक ऐसा ही शब्द है सामाजिक और सामासिक जिसमें बड़े बड़े प्रकाशन समूह ने अनुवाद में गलती की हुई है। लेखक ने स्वयं स्वीकार किया है कि किताब आधी अधूरी है उसके लिए उनको साधुवाद। परंतु जितना सीमित रूप में किताब की सामग्री है उस लिहाज से किताब महँगी है (200 से कम होनी थी MRP)। किताब के दाम को लेकर मेरा मानना है उसकी कीमत इतनी होनी चाहिए कि फोटोकापी महँगी लगे। ज्ञान तो सदैव से ही महँगा है। अज्ञानता सस्ती है। पर उसका जोखिम ज्यादा है। कीमत को लेकर कुछ और कुतर्क, वर्तमान समय में अज्ञानता का सबसे बड़ा प्रतीक है गुटखा चबाकर थूकना। उसके साप्ताहिक बजट से किताब की कीमत कम है। मल्टीप्लेक्स के मूवी के एक टिकट से कम है इसकी कीमत। इन कुतर्कों से किताब की कीमत पूरी तरह जायज है। कीमत पर इतनी चर्चा की शायद आवश्यकता न हो लेकिन जब भी कोई ऐसी किताब दिखती है जो स्कूल और कालेज के विद्यार्थी को फायदा पहुंचा सकती है तो मैं थोड़ा नास्टेलजीक (Nostalgic) हो जाता हूँ क्योंकि उस दौर में अमेजन और इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध नहीं थी तो किताब खरीदने के लिए दिल्ली, लखनऊ, इलाहाबाद जैसे जगहों पर निर्भर था यहाँ तक कि बैंगलोर के एम जी रोड पर स्थित किताब दुकान से भी एक किताब खरीदी थी। इस विषय पर भी कभी विस्तार से लिखूंगा फिर यहाँ लिंक डाल दूंगा।
    लेखक से यह उम्मीद की जा सकती है कि अगले संस्करण में उपरोक्त से संविधान शब्द का लोप कर दें और उसकी जगह जनमानस रख दें। भावनाएं भी अक्षुण्ण रह जाएंगी और तथ्य भी।
    किताब की सामग्री बेहतरीन है जिस तरह इसे हाथों हाथ लिया गया इसका छपना सफल हो गया। बाकि इसका असल उद्देश्य तब सफल होगा जब लोग इसे पढ़कर अपने भाषिक ज्ञान को बेहतर करेंगे। यह कोई शब्दकोश नहीं है परंतु जो लोग ज्ञान प्रति गंभीर होंगे हो सकता है इसको पढ़ने के बाद वे शब्दकोश के नियमित प्रयोग की ओर उन्मुख हो सकते हैं। किताब के बैक कवर पर किताब को लेकर कुछ दावे किए गए हैं यकीनन वह बाजार की भावनानुरूप अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। अपने बेरोजगारी (के हर प्रकार के स्वरूप) के दिनों में जब मैं संघर्षरत था तब लंबे समय तक प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की है, अपने व्यक्तिगत अनुभव और ज्ञान के आधार पर मैं यह बात दावे के साथ कह सकता हूँ कि यह किताब मूलभूत किताबों का स्थान नहीं ले सकती। अधिक से अधिक यह एक सहायक किताब साबित हो सकती है जिसे अभ्यर्थी अपने सुविधानुसार पढ़े। खासतौर पर जब वह गंभीर तैयारी करते हुए थक जाए और ब्रेक लेकर कुछ ऐसा पढ़ना चाहे जो तैयारी की गंभीरता को कायम रखते हुए कुछ हल्का फुल्का सा दिमाग को आराम दे और उसे पढ़ाई के अगले अभियान के लिए तरोताजा कर दे, तब इस किताब को पढ़े, फायदा हो सकता है। भाषा के प्रति अनुराग बढ़ाने के लिए और गंभीर भाषायी विवेचन के लिए ये किताब काम आ सकती है। इस लेख को प्रकाशित करते करते पता चला है कि इसका पार्ट-2 भी इस साल आ गया है। मुझे क्षमा कर दें डॉ. साहब पहली किताब पढ़ने और ये लिखने में मैंने इतना समय ले लिया। चलो भाई अगली कड़ी मंगाने की तैयारी करते हैं।

सत्योत्तर* काल में लिखी रचनाओं को सावधानी से पढ़ना जरूरी, संदर्भ: डॉ. सुरेश पंत की 'शब्दों के साथ-साथ'

(सत्योत्तर=Post-truth Era) --------------- किताब      : 'शब्दों के साथ-साथ',, लेखक      : डॉ. सुरेश पंत प्रकाशक    : हिंद पॉकेट बुक्...